Thursday, March 12, 2020

ग़ज़ल

आज फिर उम्र की शाख़ से टूट कर एक लमहा ख़ला में बिखर जायेगा
इस् मुलाक़ात् का आख़्री ख़ाब भी मेरी आंखों में घुट घुट के मर जायेगा

एक यक़ीं था कि जिस का सहारा लिये मैंने पंजों के बल ज़िंदगी काट दी
कैसे कह दूं मेरी छत से वोह धूप में सिर्फ़ ज़ुल्फ़ें सुखाकर उतर जाएगा

ख़ुश्बुओं से सभी वास्ते तोड्कर यूं मुसलसल किसी फूल को देखना
ये अज़ीय्यत अगर यूं ही जारी रही एक दिन मेरा एहसास मर जायेगा

साएबानों में पाला गया है इसे ये खुले आसमानों से वाक़िफ़ नहीं
मान लो धूप की ज़द में आ भी गया छांव को देखते ही ठहर जायेगा

हिज्र् का मरहला भी गुज़र जायेगा जैसे लाखों मराहिल से गुज़्रे हैं हम
मेरी मंज़िल तो ये मयकदा आ गया हमसफ़र ये बता तू किधर जायेगा
ग़ज़ल

आ ही गए जब हद्दे नज़र में आ जाते
लौट के आंसू अपने घर में आ जाते

छू लेते तो आँखें पत्थर हो जातीं
सुन लेते तो दाग़ जिगर में आ जाते

होश में सौ अंदेशे थे रुस्वाई के
रुस्वाई से आप खबर में आ जाते

चाँद अधूरे क़िस्से कुछ अनदेखे ख़्वाब
दीवानों के काम सफ़र में आ जाते

आदत हो जाती गर्दिश पैमाई  की
तुम भी हमारे साथ सफ़र में आ जाते

एक साये की ख़ातिर कौन ठहरता है
सन्नाटे कुछ और शजर में आ जाते

Wednesday, March 11, 2020

ग़ज़ल

क्या ख़्वाहिशे हस्ती है न  कह पाया   बहुत देर
फिर ले के किसी  नाम  को  शरमाया बहुत देर

वीरानी  ने   चुपके  से   कोई   नाम   लिया था
वहशत ने फिर उस नाम को दोहराया बहुत देर

ख़ंजर से  ज़ियादा  उसे इस  बात  का  गम  है
ज़ालिम  ने हवा  में  उसे  लहराया  बहुत   देर

रौशन है  हर  इक  राह  मगर  उसकी  गली में 
महताब  ने  इक  नूर  को  बरसाया  बहुत  देर

कुछ  तुर्फ़ा   शग़फ़  है  उसे  बीनाई   से   मेरी
वो जा भी चुका फिर भी नज़र आया बहुत देर

जिस  बात  को  कहने  में  ज़बाँ  काँप रही थी
दिल  ने उसे  ख़ामोशी  से फ़रमाया  बहुत  देर

ग़ज़ल

अगर  ग़ुस्से  में  साइल  बैठ  जाए
दरो  दीवार  का   दिल  बैठ  जाए

ज़रूरी है  हवा भी सर झुका  कर
चिराग़ों  के  मुक़ाबिल  बैठ  जाए

उसे  अब  ताबे  रुसवाई   नहीं  है
दुआ माँगो कि  क़ातिल बैठ जाए

तलातुम  क्या  बिगाड़ेगा   हमारा
इरादों  में  जो  साहिल  बैठ  जाए

इलाही  ख़ैर  हो  दिल की गली में
है  इतना हब्स के  दिल बैठ जाए

कहाँ  फिर फ़िक्रे नज़्ज़ारा  रहेगी
ज़रा आँखों में वो तिल  बैठ जाए

जुनूँ तो  फिर जुनूँ है उसके  दर पे
क़दमबोसी को मुश्किल बैठ जाए
ग़ज़ल

परिन्दे आँधियों  में रुक गये  हैं
नतीजे फ़ैसलों  में  रुक गये  हैं

खुले में  घूमते  हैं  ग़म के  मारे
बस अंदेशे घरों में में रुक गये हैं

मुहब्बत की  वो रुसवाई हुई  है
तनाज़े  दोस्तों  में  रुक  गये  हैं

उसे हद  से  ज़ियादा  देखने  में
कई  आँसू  हदों  में  रुक गये हैं

तमन्नाओं को है बस ये निदामत
मुसाफ़िर रास्तों  में  रुक गये  हैं

पहुँचने हैं वही मंज़िल पे अपनी
जो उनके गेसुओं में रुक गये हैं

ज़बाँ ख़ामोश ख़ुश्की है लबों पर
क़दम बैसाखियों में रुक  गये हैं

Thursday, October 13, 2011

डर۔۔۔۔

डर.....

ज़माना यूँ ही परेशाँ है आह भरता है 
तेरा ख़याल मुझे छू के कब गुज़रता है

वो सारे जिस्म में दिल की तरह धड़कता है
दिमाग़ है कि ये सच मानने से डरता है।

Saturday, September 19, 2009

MANZAR......

Zaum-e-sannaai sukhanwar se gaya
yaani ek aaseb tha sar se gaya

shauq milne ka bicharne ka malaal
waswasa ye bhi mere dar se gaya

Zindgi ek barg he sookha hua
shakh se toota to manzar se gaya